समूहबद्धता और जातिवाद...

पिछ्ले लेख पर ज्यादा प्रतिक्रियाऎं तो नहीं आयी लेकिन जो  भी आयीं उन्होने कुछ नये प्रश्न खड़े कर दिये.प्रमोद जी बोले

यह दिल्‍ली ही नहीं, मुंबई- कमोबेश किसी भी बड़े भारतीय शहर की अंदरूनी डायरी है. इस अनुभव से नतीजा क्‍या निकलता है? एक तो वह जिसे आप समूहबद्धता की सहूलियत का सीधा, आसान-सा नाम देकर छुट्टी पा सकते हैं. और देखना चाहें तो (मुझे हर जगह वही प्रभावी दीखता है)- कि ऊपरी तौर पर आधुनिकता के दिखावटी हो-हल्‍ले के बावजूद किस तरह यह हमारी एंटी-शहरी, घेटोआइज़्ड और अपनी पहचानी सामूहिकता से बाहर किसी भी अजनबीयत से भारी भय की मानसिकता है! आपको-हमको उतना न दिखे, मगर किसी भी अनजानी व नयी जगह में अल्‍पसंख्‍यक जिसकी सबसे ज्‍यादा तक़लीफ़ें व अलगावपन झेलते व जीते हैं.

 

यानि वो मानते है कि मेरे अनुभव मात्र मेरे अनुभव ही नहीं हैं उनका एक सार्वजनिक सरोकार है.लेकिन वो उन अनुभवों के नतीजे से खुश नहीं उनका कहना है ये नतीजा उतना सहज नहीं जितना मानने की भूल मैं कर रहा हूँ. वरन ये काफी ज़टिल है और इसके मूल में कहीं ना कहीं हमारे अल्पसंख्यक होने पर भय की मानसिकता भी है....मैं उनसे पूरी तरह से सहमत हूँ कि जब हम अल्पसंख्यक होते हैं तो अजनबीयत हमें एक मानसिक भय का अहसास करा देती है... ठीक इसी तरह का भय घुघूती जी की नायिका भी महसूस करती है किन्ही और अर्थों और संदर्भों में...यही भय हमें समूहबद्ध होने के लिये बाध्य करता है...

मसिजीवी जी बोले

काकेश थोड़ा सरलीकरण किए जा रहे हैं, जरा थमिए:
आप दिल्‍ली के बारे में जो कह रहे हैं वह पूरी तरह निराधार नहीं है पर आप बसावट के अधिकांश उदाहरण पेशेगत व क्षेत्र के देकर इसे स्‍वाभाविक कहे दे रहे हैं- जाति की भी भूमिका है उसे नजरअंदाज न करें और धर्म की भी- पर विशेष बात यह कि ये दिल्‍ली की प्रकृति उस रूप में नहीं है जैसी रवीश बता रहे हैं (अगर सच है तो)और फिर 'अपने जैसे' लोगों के इकट्ठे होने में जो सेल्‍फ व अदर की गहरी निर्मिति है वही तो 'दंगे' की शुरूआत है।
एक नजर ताज एपार्टमेंट (गीता कालोनी) पर भी डाल आएं और स्‍पष्ट हो जाएगा। ये जो अल्‍पसंख्‍यकों में भय-मनोवृत्ति होती है, महानगर उसका निषेध करता है या कहें आदर्श रूप में उसे करना चाहिए पर यदि वह उसका पोषण करने लगे तो ये महानगर का ग्रामीकरण है जो 'गुजरातों' को जन्‍म दे सकता है- देता है।

यानि वो भी मान रहे हैं जो मैने कहा वो निराधार नहीं है.वो इस बात से सहमत नहीं हैं कि समूह से जुड़ने में केवल पेशा या क्षेत्र ही महत्वपूर्ण नही होते वरन जाति की भी एक अहम भूमिका होती है.

अभय जी ने चिप्पी लगायी.

मियाँ काकेश, आप की पोस्ट से ज़्यादा आप की पोस्ट पर टिप्पणीकारों से सहमत हुआ जाता हूँ.. आशा है आप बुरा न मानेंगे..प्रमोद जी और मसिजीवी ने पते की बात कही है..

तो वो भी इस बात से सहमत है कि ये चीजे तो हैं ही.तो इस बात पर तो सहमति बनती है कि हम समूहबद्ध होते हैं और इसमें कहीं ना कहीं हमारे मानसिक भय का भी हाथ होता है, हमारे समूहबद्ध होने के कई कारण हो सकते हैं.उन्ही कारणों पर प्रकाश डालने के लिये आपको कुछ अनुभव और सुनाता हूँ.

[ पिछ्ली बार जब अभय जी से मिला था तो अभय जी ने कई अच्छी अच्छी बातें बतायीं थी,जिसे प्रमोद जी ने कहा कि काकेश शिष्यत्व भाव से सुनते रहे.उन्ही बातों में एक थी कि आपको अपने अनुभवों को अपने लेख में लिखना चाहिये. उसी का अनुकरण कर कुछ अनुभव आप से बांटे थे और आज भी बांट रहा हूँ ]

मेरा बचपन एक छोटे शहर में गुजरा.वैसा ही जैसा की भारत एक छोटे कस्बे का जीवन होता है ठीक वैसा ही जीवन था वहां.शहर जो कई मुहल्लों से मिलकर बना था.वहां एक क्रिकेट टूर्नामेंट होता था.जिसमें सभी मुहल्लों की टीमें रहती थी. लोग अपने अपने मुहल्ले की टीमों का समर्थन करते.हम भी अपने मुहल्ले की टीम के समर्थन में रहते.बड़ा ही जबर्दस्त माहौल होता जब अपनी अपनी टीमों के लिये लोग नारे लगाते.  ज़ीतने पर बड़ी ही शान से जुलुस निकालते.लोग समूहबद्ध होते थे और उस समूह का केन्द्र होता था मोहल्ला.

इसी तरह एक और ट्रॉफी वहां होती थी "हिल टॉप ट्रॉफी" वहां आसपास के शहरों की टीमें रहती थी ठीक वैसा ही माहौल होता जैसा पहले वाले टूर्नामेंट में था बस समूहबद्ध होने का कारण बदल जाता हम मुहल्ले की बजाय अपने शहर को समर्थन देने लगते.

जब इंजीनियरिंग के लिये दूर दूसरे शहर में गया तो लगता कि कितने दूर आ गये हैं.. अपना पहाड़ लगता कि छूट गया है.. मैदान का जीवन पहाड़ से बहुत से क्षेत्रों में अलग होता है.. उस समय यदि कोई भी पहाड़ का व्यक्ति मिल जाता तो लगता कि हाँ ये अपना ही तो है.. बड़े ही अपनेपन की फीलिंग होती एक ऎसा व्यक्ति जो अपने ही जैसे माहौल से आया..तो हॉस्टल में सारे पहाडियों का एक ग्रुप होता..इसी तरह से कुछ लोग नॉर्थ ईस्ट (असम,मेघालय) से आये हुए होते थे ..उनका अपना एक ग्रुप था..इस तरह के बहुत से ग्रुप थे..ऎसा नहीं था कि इन ग्रुपों में आपस में कोई वैर भाव हो या किसी भी प्रकार की प्रतियोगिता या जलन.. पर  फिर भी ग्रुप थे..मतलब यहाँ भी हम समूह बद्ध हुए ..समूह का कारण था हमारा क्षेत्र यानि पहाड़ ...

फिर नौकरी के लिये बंगाल जाना पड़ा.. पहली बार आप बंगाल जाओ जब आप बंगाली संस्कृति और भाषा को ठीक से नहीं जानते तो आपको सब कुछ अजनबी सा लगता है...सारे बंगाली लोग मिलते ..वहां उस समय यदि कोई हिन्दी भाषी मिलता तो लगता कि अपना ही है...वहां अक्सर जब लोग मिलते तो पूछ्ते "तुमि बंगाली ना हिन्दुस्तानी ?" .."तुम बंगाली हो या हिन्दुस्तानी? " पहले पहले तो समझ में नहीं आया..कि क्या पूछा जा रहा है..क्या बंगाल हिन्दुस्तान में नहीं है ? फिर ऎसा प्रश्न क्यो कि मैं बंगाली हूँ या हिन्दुस्तानी.. लेकिन फिर लगा कि लोग हिन्दी भाषियों को हिन्दुस्तानी कहके बुलाते हैं... तो एक सहज जुड़ाव उन लोगों से हो गया जो हिन्दी भाषी थे...  कोई यदि कहता मॆं यू पी का हूँ या फिर बिहार का हूँ तो लगता हाँ ये अपना ही तो है... समूहबद्ध होने का कारण हमारी मातृ भाषा बन गयी थी....

एक बार ऑफिस के काम से लंदन जाना पड़ा .. वहाँ पहुंच कर भी एक अजनबियत की फीलिंग हुई ..लगा कि कहां आ गये ..कोई अपना जैसा नहीं ...सब के सब अंग्रेज .. भाषा भी सामान्य अंग्रेजी नहीं ..बहुत ध्यान से सुनना पड़ता.. भोजन भी अलग... तौर तरीके भी अलग और संस्कृति भी अलग ... वहां लगता कि काश कोई भारतीय मिल जाये..और यदि कोई मिल जाता तो बहुत ही अपना सा लगता ..चाहे फिर वह दक्षिण भारतीय हो या फिर उत्तर भारतीय..कोई गुजराती हो या फिर कोई बंगाली... कोई  यूपी का हो या कश्मीर का ..सब अपने लगते.. ऎसे ही एक बार एयरपोर्ट पर एक अंग्रेज से दिखने वाले एक व्यक्ति ने पूछा .."आर यू इंडियन ? " तो मैने जबाब दिया "यस" ..फिर तो वो बहुत ही प्यारी उर्दू मिश्रित हिन्दी में शुरु हो गये ..अपने बारे में बताने लगे..पता लगा कि वो कश्मीरी हैं.. तो यहां हमारी समूहबद्धता का कारण था भारत...

इसी तरह से यदि एक से ज्यादा ग्रह होते जहां जीवन होता तो दूसरे ग्रह में जाके हम किसी पृथ्वी वासी को सहजता से अपना लेते...

तो मेरी समूहबद्धता की शुरुआत मोहल्ले से शुरु हुई और देश तक गयी.. ऎसी ही हम सबकी होती है..हां इसमें धर्म भी रहता है जाति भी...कभी हम धर्म के नाम पर एकत्रित होते हैं तो कभी जाति के नाम पर ..कभी क्षेत्र के नाम पर तो कभी भाषा के नाम पर .. कभी पेशे के नाम पर तो कभी रुचियों के नाम पर .. ये एक प्राकृतिक स्वाभाविक प्रक्रिया है ..जो दिल्ली में भी उतनी ही है जितनी अहमदाबाद में ..बंगाल में भी उतनी ही है जितनी लंदन में....इसके लिये किसी एक शहर को ये कहके अलग कर देना कि नहीं इस शहर में ही इस तरह की बातें हैं तो ये मेरे हिसाब से गलत है..हाँ हर एक शहर अपनेआप अलग है..हर शहर की अपनी मानसिकता है..कहीं ..कोई चीज प्रधान है कहीं कोई और... जैसा मसिजीवी ने कहा कि ये दंगो का आमंत्रण है तो ये भी पूरी तरह से ठीक नहीं लगता.. कि जाति या धर्म के आधार पर समूह हैं तो वो आपस में लड़ेगे ही.. लड़ने के लिये केवल समूह ही जिम्मेवार नहीं अन्य कई कारण भी जिम्मेवार होते हैं...

अंत में घुघुती जी की प्रतिक्रिया जो मेरे को मेरे विचारों के करीब लगती है.

बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो हमें स्वाभाविक व व्यवहारिक लगती हैं किन्तु जो पोलिटिकली करेक्ट नहीं होतीं। मान लीजिये मैं शाकाहारी हूँ और मेरा पूरा परिवार शाकाहारी है तो यदि मैं शाकाहारी लोगों के बीच रहूँगी तो मेरा जीवन सरल हो जाएगा। मैं रात दिन पड़ोसियों के घर से आती माँस पकने की गन्ध से बच जाऊँगी। मैं स्वयं माँस पकाती हूँ पर मुझे भी वह गन्ध असह्य लगती है।


इसी तरह यदि किसी सोसायटी में केवल वृद्ध रहते हों तो वे पार्टियों व संगीत की ऊँची आवाज से भी बच जाएँगे और युवाओं को टोकने से भी। पर यही सब बात जब धार्मिक या जातीय स्तर पर कही जाती है तो स्वाभाविक रूप से बुरी लगती है। यदि मैं किसी माँसाहारी ब्राह्मण को घर किराये पर देने से मना करती हूँ तो उसे बुरा नहीं लगेगा, पर यदि किसी अन्य धर्म वाले , या जाति वाले को माँसाहार के आधार पर मना करूँगी तो उन्हें निश्चय ही लगेगा कि मैं धार्मिक या जातीय भेदभाव कर रही हूँ। यह साधारण सा मनोविज्ञान है।

हाँ, यह भी सही है कि जितनी अधिक विविधता किसी मौहल्ले में होगी उतना ही वह हमें सहनशील व औरों के अधिकारों व भावनाओं के प्रति जागरुक बनायेगी।

 तो मैने तो अपने अनुभव आप से बांट दिये ..अब आप भी अपनी प्रतिक्रियाऎं दे ही दें....

Comments

Anonymous said…
उत्कृष्ट! बहुत ही खुली और व्यापक सोच है आपकी। आप समूह बनने की क्रिया को मोहल्ले से वैश्विक स्तर तक ले गए। बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया है। एक गड़बड़ हो गई आपने इसे जनरलाइज़ कर दिया, व्यापक बना दिया। अब यह समूहगतता गुजरात और अहमदाबाद की ही नहीं रही। आप लोगों की बातें समझ नहीं रहे हैं। आप बड़े ही चिकने घड़े हैं, औंधे घड़े हैं। जब आपको बताया जा रहा है कि गुजरात और अहमदाबाद में होता है तो आप काहे अपना मोहल्ला, शहर, होस्टल, बंगाल, लंदन याद कर रहे हैं। आप के बीन बजाने से कुछ होगा क्या?
Anonymous said…
मैं आपके पिछले लेख से सहमत हूँ, परंतु वहाँ पर विरोध के स्वर ‍देख कर बिना टिप्पणी दिए लौट गया था।
ALOK PURANIK said…
मित्र, मामला बहुत सीधा नहीं है। मनुष्य जितना जटिल दिखता है, उससे कहीं ज्यादा जटिल वह है। जोड़ने और तोड़ने के काम एक साथ चलते हैं। आदमी जुड़ता है, जब उसकी वाट लगती है। उसे डर लगता है। उसका वजूद खतरे में होता है। डरों हुए को जोड़ना बहुत आसान होता है। इसलिए सारे सांप्रदायिक संगठन पहले डराते हैं। अकेलापन, एकदम बेनाम होकर विलीन होने का डर, बड़ा डर होता है। बहुत बढ़िया इंसान बहुत घटिया टाइप के संगठनों के सदस्य होते हैं। एक फर्जी किस्म का सहारा सा हो जाता है, कि हमारे साथ ये या वो है। पर मामला सिर्फ इतना नहीं है। पर जुड़कर भी बंदा अपना एक्सक्लूसिव वजूद चाहता है। जब वाट लगी होने की सिचुएशन खत्म हो जाये। डर कम हो जायें, तो फिर मारकाट। जाति आधारित संगठन एक दूसरे के खिलाफ विषवमन करके ताकत पाते हैं। पर अंदरुनी मारकाट कहीं कम नहीं होती। बीसा रेटिंग के बनिया दस्सा रेटिंग के बनिये से विवाह संबंध कायम करने में संकोच ही नहीं, घृणा का इजहार करते हैं। गंगा पार का ब्राह्णण इस पार के ब्राह्णण को चिरकुट मानता है। और सिर्फ ऐसा नहीं कि ये कैटगराइजेशन सवर्णों में ही है। प्रेस करके आजीविका अर्जित करने वाले धोबी बंधु गधे रखने वाले धोबियों के प्रति बहुत सकारात्मक भाव नहीं रखते।
मनुष्य एक साथ साथ भी रहना चाहता है।
पर एक्सक्लूसिवपने का भाव भी चाहता है कि हमसा कोई ना हो, हम पर टाप पर हों। झगड़े इसलिए कभी नहीं रुकेंगे, और समूह बद्धता की डिमांड भी बराबर रहेगी।
यही वजह है कि झगड़े हिंदू मुसलमान में ही नहीं होते। हिंदुओं में भी आपसे में भरपूर हो रहे है। पर डरजनित एकता कुछ समय के लिए की जा सकती है।
जब तक कि पूरी दुनिया ही पहुंचे हुए फकीरों की श्रेणी में न आ जाये, यह सब गुल-गपाड़ा चलेगा।
आलोक पुराणिक
अच्छे लेख का आलोकजी ने अच्छा उपसंहार दिया की जब तक कि पूरी दुनिया ही पहुंचे हुए फकीरों की श्रेणी में न आ जाये, यह सब गुल-गपाड़ा चलेगा।

खरी बात.
Anonymous said…
आलोकजी आप पहुँचे हुए चिंतक-लेखक हैं इसलिए आप निश्चित सही लिख रहे होंगे। काकेशजी जो कहना चाहते हैं उसे मैं अपनी अक्ल से ये समझा हूँ कि समूहवाद मनुष्य का एक गुण है और इसे केवल गुजरात से ही जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। मेरे इन्दौर शहर में भी बंगाली कॉलोनी है, किसी इलाके में केवल बिहारी लोग ही रहते हैं, दक्षिण भारतीयों ने एक विशेष क्षेत्र चुन रखा है वे बहुसंख्य वहीं रहते हैं। महाराष्ट्रियन लोगों की भी कॉलोनियाँ हैं। ये सभी लोग किसी धार्मिक संगठन के बहकावे में एक जगह नहीं रहते। ये केरली, बंगाली, महाराष्ट्रियन, गुजराती एक दूसरे के भय से एक साथ नहीं रहते। एक भाषा संस्कृति के लोग साथ रहना चाहते हैं।
साथ रहना और विवाह करना दो अलग बातें हैं। बीसा दस्सा आपस में विवाह न करें पर साथ तो रहते ही हैं।
काकेश said…
ये बात समझ में नही आयी कि इस पोस्ट पर हिट तो बहुत हुई पर टिप्पणी बहुत कम आयी..

अतुल जी आप सही समझे मैं वह ही कहना चाहता था/हूँ जो आपने मतलब निकाला...लेकिन जो आलोक जी ने कहा वो भी किन्ही और अर्थों में एकदम सही है.. जैसा संजय भाई ने कहा कि आलोक जी की टिप्पणी को इस लेख के उपसंहार के रूप में देखना चाहिये ..ना कि विरोध या समर्थन के रूप में..
ALOK PURANIK said…
अतुलजी
पहले तो आपके आरोप का खंडन करता हूं कि पहुंचा हुआ चिंतक हूं।
दूसरी बात यह सरजी कि इंदौर में अगर बंगाली एक साथ एक कालोनी में रह रहे हैं, तो इसके पीछे एक डर है पहचान विलीन होने का। एक किस्म की सांस्कृतिक वाट हर किस्म के अल्पसंख्यक चाहे वह भाषाई हो, की लगी होती है। यह वाट उन्हे इंदौर में जोड रही है। पर बंगाल में भी वे अपनी पहचान को लेकर उतना नहीं डरते होंगे। दिल्ली में कई महाऱाष्ट्रीयन सभाएं अपनी भाषा को लेकर, अपनी पहचान को लेकर चिंतित रहती हैं, क्योंकि उन्हे यहां की पंजाबी बहुलता से खतरा लगता है। पर ये महाराष्ट्रीयन परस्पर गोष्ठी में कुछ इस तरह की बातें करते हैं-हम ऊंचें क्योंकि हम पुणे वाले हैं, और वो नीचे क्योंकि वो कानपुर वाले हैं। किसी न किसी किस्म का डर उन्हे जोड़ रहा है। पर एक्सलूसिवपने की चाह अपनी जगह कायम है।
ALOK PURANIK said…
बिलकुल ठीक मेरी बात को किसी के विरोध के रुप में देखा जाये,
मैं तो इस पूरी बात में अपनी बात रखने की कोशिश की है
Arun Arora said…
काकेश जी हर जगह आदमी समूहो को बनाने और
अपने समूह वाले को ढ्ढने मे लगा है.हर जगह आपको दिख जायेगा,पहले देश ,फ़िर प्रांत,फ़िर शहर फ़िर धर्म और जाती,उपजाती,गोत्र ढ्ढने मे लगा रहने वाला ये जंतु इनसान है.कहा नही है ये देखिये,आप दंग रह जायेगे.बाकी काफ़ी कुछ आलोक जी ने कह ही दिया है .
रही आपकी टिप्पणि की बात लोग ऐसे मामलो पर बोलने से डरते है इसीलिये मै कल मस्ती लेकर आपको बादाम खाने की राय देकर निकल लिया था

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