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पुराणिक मास्साब की डायरी का एक पन्ना.

(ये रचना, व्यंग्य की तोप,हमारे सह ब्लॉगर श्री आलोक पुराणिक जी पर नहीं है.) एक मास्साब थे,काफी सेंसिबल टाइप थे.सारे मास्साब सैसिबल हों ये जरूरी नहीं पर वो थे.लेकिन वो थे थोड़ा पुराने जमाने के मास्साब ...यानि पुराणिक टाइप ...अभी भी बच्चों को पढ़ाकर उन्हे आदमी बनाने की पुरानी सोच रखते थे.दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच रही है बच्चे अपने मास्साब को इंसान बनाने की सोच रहे हैं और ये बेचारे..खैर ...  ऎसा नहीं था कि इस बात को समझते नहीं थे कि दुनिया बदल रही है इसीलिये दुखी भी थे लेकिन अपना दुख वो कभी भी जाहिर नहीं करते थे दुनिया के सामने उनके बत्तीसी लगातार चमकती रहती थी.हाल ही उनकी एक पुरानी डायरी मेरे हाथ लग गयी.उसी के कुछ अंश पेश कर रहा हूँ.हिन्दी के मास्साब हैं इसलिये शब्द कहीं कहीं अंग्रेजीनुमा हो गये हैं. आज सुबह उठा तो सुबह अभी भी सोयी ही पड़ी थी.देर रात तक पार्टी किये लोग अभी किसी स्वप्न नगरी की अट्ठालिकाओं में विचरण कर रहे थे.काम करने वाली बाइयों ने अपने घर के काम निपटाने चालू कर दिये ताकि उनके मालिकान उठें तो वो उनके काम निपटा सकें.अलसायी गायें अपने दूहे जाने के लिये तैयार हो रही थी.कुछ कु

पवित्रता का दौरा:हरिशंकर परसाई

पिछ्ली बार जब हरिशंकर परसाई जी कि एक रचना प्रस्तुत की थी तो युनुस भाई ने कहा था "परसाई जी की और रचनाएं लाएं" आज पेश उनकी एक और रचना. सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूं क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है. दिन-भर मैंने हर मिलने वाले को तुच्छ समझा. मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर उससे अपने को बचाता रहा. पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है. अपने पवित्र होने का एहसास आदमी को ऐसा मदमाता है कि वह उठे हुए सांड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है. पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पांव में घुंघरू बांध दिए गए हों. वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गंदी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है. यह इत्र गंदगी के डर से शीशी में ही बंद रहता है. वह चिट्ठी साहित्य की एक मशहूर संस्था के सचिव की तरफ से थी. मैं उस संस्था का, जिसका लाखों का कारोबार है, सदस्य बना लिया गया हूं. स्थायी समिति का सदस्य हूं. यह संस्था हम लोगों को बैठकों में शामिल होने का खर्च न

राजा साहब का थोबड़ा टी.वी. में.

नये युग के बच्चे अब नये तरीके सीखना चाहते हैं.उन्हे अब पुराने तरीको से कोई मतलब नहीं.नये युग के कुछ बच्चों को इतिहास पढ़ाना चाह रहा था.ताकि वो भी समझे कि उनके पूर्वजों ने कितने कितने त्याग किये.कितने दिन सुनहले होते होते रह गये और रातें काली हो गयी.लेकिन बच्चों की इच्छा अब इस चवन्नी छाप इतिहास जैसे विषयों में कहाँ रही. वह रातों रात प्रसिद्ध होना चाहते हैं-येन केन प्रकारेण.भले ही उसके लिये उन्हें किसी को गरिया कर उसकी वाट लगानी पड़े या फिर मालिक के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलानी पड़े. प्रसिद्ध होने की राह यदि बदनामी के मोहल्ले से भी गुजरती हो तो भी स्वीकार्य है. मैं बच्चों को जैनुइनली इतिहास पढ़ाना चाहता था. मैने सोचा की चलो उन्हे कोई कहानी सुनाऊं..नये जमाने के बच्चे थे 'कहानी घर घर की' में इंट्रस्ट रखते थे इतिहास में नहीं.मैने उन्हे पढ़ाते हुए कहा कि एक राजा था जो... एक बालक बोल उठा कि 'ये राजा क्या होता है..??'. मैने कहा राजा याने किंग.बच्चे आजकल जो बात हिन्दी में नहीं समझते वो अंग्रेजी में आसानी से समझ जाते हैं. वो बोला अच्छा किंग यानि किंग खान यानि शाहरुख खान...मैं बोला

लंगी लगाने की विशुद्ध भारतीय कला

नेतागिरी स्कूल में भर्ती होने वाले कुछ दुहारू (दूसरों को दूहने में माहिर) छात्रों की परीक्षा चल रही थी.वहां के प्रश्नपत्र में आये निबंध पर एक मेघावी और भावी इतिहास पुरुष छात्र का निबंध. लंगी लगाना भारतीय मूल की प्रमुख कला है. लंगी लगाना यानि किसी बनते बनते काम को लास्ट मूमेंट में रोक देना .जैसे आप अपनी प्रेमिका को फोन लगाने के लिये मन बनायें और आपकी बीबी पीछे से आपको आवाज दे दे.वैसे बीबीयाँ ही लंगी लगायेंगी ये जरूरी नहीं ये काम आपके चिर परिचित हें हें हें या नॉन हें हें हें टाइप मित्र भी कर सकते है.हर बात पर क्रांति की धमकी देने वाले नये क्रातिकारी भी और सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहने वाले महान बुद्धिजीवी भी इस कला में माहिर होते हैं. अब वो चाहें लल्लू हों या चिरकुट लंगी लगाने के मामले में हम भारतीय जन्मजात एक्सपर्ट होते हैं. ऎशियाई खेलों में कबड्डी में स्वर्ण पदक हमारी इसी जन्मजात प्रतिभा का कमाल है. कुछ विश्वस्त सूत्रो ने खबर दी है कि भारत सरकार लंगी लगाने की इस विशुद्ध भारतीय कला का पेंटेट कराने की भी सोच रही है.नहीं तो क्या पता कोई विदेश में रहने वाला चौधरी , जो इस मामले में पहले स

रंगबाजी का रंग बच्चों के संग

एक मास्साब क्लास में बच्चों को रंगो के बारे में पढ़ा रहे थे.उन्होने मास्साबों की चिर परिचित इस्टाईल में पूछा कि "बच्चो रंगो के बारे में तुम लोग क्या जानते हो? ". अब हमारे जमाने के बच्चे होते तो चुप होकर नीचे देखने लगते कि कहीं मास्साब से नजर मिली और उन्होने उठा कर पूछ लिया तो !! और मन ही मन सोचते कि अरे जानते ही होते तो तेरी क्लास में क्या झक मारने आते....पर आजकल के बच्चे बड़े समझदार हैं.इधर मास्साब ने सवाल पूछा और उधर जबाब हाजिर इसीलिये समझदार मास्टर लोग आजकल सवाल  पूछने का जोखिम ही नहीं उठाते. एक बच्चा उठा और बोला जी " रंगबाजी" वो होती है जिसमें सामने वाले को अपने सारे रंग तब तक दिखाये जाते हैं  जब तक कि वो डर के मारे कोई भी रंग ना देखने की कसम ना खाले. मैने रंगबाजी नहीं केवल रंग के बारे में पूछा था.मास्टर ने बच्चे को जबरदस्ती बैठाते हुए कहा.मास्टर ने सोचा अब तो कोई बता नहीं पायेगा और फिर अपनी विद्वता का चोला ओड़ वो बच्चों को समझायेगा.गलती यहीं हो गयी मास्टर से... मास्टर पुराने जमाने का था बच्चे नये जमाने के. एक और बच्चा उठा और बोला जी रंग वो होता है जो आमिरखान बस

पूजा चौहान का वीडियो...!!

पिछ्ली पोस्ट में मैने पूजा का दर्द आपके सामने रखने की कोशिश की थी. उस घटना का वीडियो देखिये..क्या यह शर्मनाक नहीं है ?? 

पूजा का प्रतिरोध और हम..

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कल के टाइम्स ऑफ इंडिया में पूजा की तसवीर पहले पन्ने पर थी.चित्र नीचे देंखें ..खबर पढ़ी तो दिल दहल गया और साथ ही मन ही मन पूजा के साहस की प्रसंशा भी की.आज मसिजीवी ने जब इस पर लिखा और फिर सुजाता जी ने भी इसे छुआ तो रहा ना गया..और कुछ शब्दों की आड़ी तिरछी रेखाऎं पूजा के रूप में बोलने लगीं... (1) तुम्हें याद है अपना वो समय जब किसी को निकाल दिया जाता था सिर्फ बेटी पैदा करने के जुर्म में. मार दिया जाता था भविष्य की जननियों को. सिर्फ इसलिए कि वो आपकी मर्दानगी का विरोध नहीं कर सकती, लेकिन क्या मार पाओगे तुम, एक मां की ममता को सुखा पाओगे क्या उसके आंचल का दूध कल वही  भय तुम्हे घेरेगा जब तुम्हारा पुरुषवादी व्यक्तित्व तुम्हारा बेटा ढूंढने निकलेगा एक अदद लड़की। (2) ना करती प्रतिरोध तो क्या करती? सहती ...??? और रहती उन भेडिय़ों के साथ. आप की सभ्य दुनिया, जो नंगेपन की आदी है क्या देखती है नंगई सिर्फ मेरी दुनिया को क्यों नहीं दिखायी देता इन मर्द रूपी नामर्दों का नंगा नाच.  (3) हा हा हा ... अब मेरे प्रतिरोध को हवा देने तुम भी आ गये कहां थे तुम ?? जब जल रहीं थी बहू बेटिंयां दहेज के नाम पर, सताया जा र