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Showing posts from 2007

पुराणिक मास्साब की डायरी का एक पन्ना.

(ये रचना, व्यंग्य की तोप,हमारे सह ब्लॉगर श्री आलोक पुराणिक जी पर नहीं है.) एक मास्साब थे,काफी सेंसिबल टाइप थे.सारे मास्साब सैसिबल हों ये जरूरी नहीं पर वो थे.लेकिन वो थे थोड़ा पुराने जमाने के मास्साब ...यानि पुराणिक टाइप ...अभी भी बच्चों को पढ़ाकर उन्हे आदमी बनाने की पुरानी सोच रखते थे.दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच रही है बच्चे अपने मास्साब को इंसान बनाने की सोच रहे हैं और ये बेचारे..खैर ...  ऎसा नहीं था कि इस बात को समझते नहीं थे कि दुनिया बदल रही है इसीलिये दुखी भी थे लेकिन अपना दुख वो कभी भी जाहिर नहीं करते थे दुनिया के सामने उनके बत्तीसी लगातार चमकती रहती थी.हाल ही उनकी एक पुरानी डायरी मेरे हाथ लग गयी.उसी के कुछ अंश पेश कर रहा हूँ.हिन्दी के मास्साब हैं इसलिये शब्द कहीं कहीं अंग्रेजीनुमा हो गये हैं. आज सुबह उठा तो सुबह अभी भी सोयी ही पड़ी थी.देर रात तक पार्टी किये लोग अभी किसी स्वप्न नगरी की अट्ठालिकाओं में विचरण कर रहे थे.काम करने वाली बाइयों ने अपने घर के काम निपटाने चालू कर दिये ताकि उनके मालिकान उठें तो वो उनके काम निपटा सकें.अलसायी गायें अपने दूहे जाने के लिये तैयार हो रही थी.कुछ कु

पवित्रता का दौरा:हरिशंकर परसाई

पिछ्ली बार जब हरिशंकर परसाई जी कि एक रचना प्रस्तुत की थी तो युनुस भाई ने कहा था "परसाई जी की और रचनाएं लाएं" आज पेश उनकी एक और रचना. सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूं क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है. दिन-भर मैंने हर मिलने वाले को तुच्छ समझा. मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर उससे अपने को बचाता रहा. पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है. अपने पवित्र होने का एहसास आदमी को ऐसा मदमाता है कि वह उठे हुए सांड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है. पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पांव में घुंघरू बांध दिए गए हों. वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गंदी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है. यह इत्र गंदगी के डर से शीशी में ही बंद रहता है. वह चिट्ठी साहित्य की एक मशहूर संस्था के सचिव की तरफ से थी. मैं उस संस्था का, जिसका लाखों का कारोबार है, सदस्य बना लिया गया हूं. स्थायी समिति का सदस्य हूं. यह संस्था हम लोगों को बैठकों में शामिल होने का खर्च न

राजा साहब का थोबड़ा टी.वी. में.

नये युग के बच्चे अब नये तरीके सीखना चाहते हैं.उन्हे अब पुराने तरीको से कोई मतलब नहीं.नये युग के कुछ बच्चों को इतिहास पढ़ाना चाह रहा था.ताकि वो भी समझे कि उनके पूर्वजों ने कितने कितने त्याग किये.कितने दिन सुनहले होते होते रह गये और रातें काली हो गयी.लेकिन बच्चों की इच्छा अब इस चवन्नी छाप इतिहास जैसे विषयों में कहाँ रही. वह रातों रात प्रसिद्ध होना चाहते हैं-येन केन प्रकारेण.भले ही उसके लिये उन्हें किसी को गरिया कर उसकी वाट लगानी पड़े या फिर मालिक के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलानी पड़े. प्रसिद्ध होने की राह यदि बदनामी के मोहल्ले से भी गुजरती हो तो भी स्वीकार्य है. मैं बच्चों को जैनुइनली इतिहास पढ़ाना चाहता था. मैने सोचा की चलो उन्हे कोई कहानी सुनाऊं..नये जमाने के बच्चे थे 'कहानी घर घर की' में इंट्रस्ट रखते थे इतिहास में नहीं.मैने उन्हे पढ़ाते हुए कहा कि एक राजा था जो... एक बालक बोल उठा कि 'ये राजा क्या होता है..??'. मैने कहा राजा याने किंग.बच्चे आजकल जो बात हिन्दी में नहीं समझते वो अंग्रेजी में आसानी से समझ जाते हैं. वो बोला अच्छा किंग यानि किंग खान यानि शाहरुख खान...मैं बोला

लंगी लगाने की विशुद्ध भारतीय कला

नेतागिरी स्कूल में भर्ती होने वाले कुछ दुहारू (दूसरों को दूहने में माहिर) छात्रों की परीक्षा चल रही थी.वहां के प्रश्नपत्र में आये निबंध पर एक मेघावी और भावी इतिहास पुरुष छात्र का निबंध. लंगी लगाना भारतीय मूल की प्रमुख कला है. लंगी लगाना यानि किसी बनते बनते काम को लास्ट मूमेंट में रोक देना .जैसे आप अपनी प्रेमिका को फोन लगाने के लिये मन बनायें और आपकी बीबी पीछे से आपको आवाज दे दे.वैसे बीबीयाँ ही लंगी लगायेंगी ये जरूरी नहीं ये काम आपके चिर परिचित हें हें हें या नॉन हें हें हें टाइप मित्र भी कर सकते है.हर बात पर क्रांति की धमकी देने वाले नये क्रातिकारी भी और सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहने वाले महान बुद्धिजीवी भी इस कला में माहिर होते हैं. अब वो चाहें लल्लू हों या चिरकुट लंगी लगाने के मामले में हम भारतीय जन्मजात एक्सपर्ट होते हैं. ऎशियाई खेलों में कबड्डी में स्वर्ण पदक हमारी इसी जन्मजात प्रतिभा का कमाल है. कुछ विश्वस्त सूत्रो ने खबर दी है कि भारत सरकार लंगी लगाने की इस विशुद्ध भारतीय कला का पेंटेट कराने की भी सोच रही है.नहीं तो क्या पता कोई विदेश में रहने वाला चौधरी , जो इस मामले में पहले स

रंगबाजी का रंग बच्चों के संग

एक मास्साब क्लास में बच्चों को रंगो के बारे में पढ़ा रहे थे.उन्होने मास्साबों की चिर परिचित इस्टाईल में पूछा कि "बच्चो रंगो के बारे में तुम लोग क्या जानते हो? ". अब हमारे जमाने के बच्चे होते तो चुप होकर नीचे देखने लगते कि कहीं मास्साब से नजर मिली और उन्होने उठा कर पूछ लिया तो !! और मन ही मन सोचते कि अरे जानते ही होते तो तेरी क्लास में क्या झक मारने आते....पर आजकल के बच्चे बड़े समझदार हैं.इधर मास्साब ने सवाल पूछा और उधर जबाब हाजिर इसीलिये समझदार मास्टर लोग आजकल सवाल  पूछने का जोखिम ही नहीं उठाते. एक बच्चा उठा और बोला जी " रंगबाजी" वो होती है जिसमें सामने वाले को अपने सारे रंग तब तक दिखाये जाते हैं  जब तक कि वो डर के मारे कोई भी रंग ना देखने की कसम ना खाले. मैने रंगबाजी नहीं केवल रंग के बारे में पूछा था.मास्टर ने बच्चे को जबरदस्ती बैठाते हुए कहा.मास्टर ने सोचा अब तो कोई बता नहीं पायेगा और फिर अपनी विद्वता का चोला ओड़ वो बच्चों को समझायेगा.गलती यहीं हो गयी मास्टर से... मास्टर पुराने जमाने का था बच्चे नये जमाने के. एक और बच्चा उठा और बोला जी रंग वो होता है जो आमिरखान बस

पूजा चौहान का वीडियो...!!

पिछ्ली पोस्ट में मैने पूजा का दर्द आपके सामने रखने की कोशिश की थी. उस घटना का वीडियो देखिये..क्या यह शर्मनाक नहीं है ?? 

पूजा का प्रतिरोध और हम..

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कल के टाइम्स ऑफ इंडिया में पूजा की तसवीर पहले पन्ने पर थी.चित्र नीचे देंखें ..खबर पढ़ी तो दिल दहल गया और साथ ही मन ही मन पूजा के साहस की प्रसंशा भी की.आज मसिजीवी ने जब इस पर लिखा और फिर सुजाता जी ने भी इसे छुआ तो रहा ना गया..और कुछ शब्दों की आड़ी तिरछी रेखाऎं पूजा के रूप में बोलने लगीं... (1) तुम्हें याद है अपना वो समय जब किसी को निकाल दिया जाता था सिर्फ बेटी पैदा करने के जुर्म में. मार दिया जाता था भविष्य की जननियों को. सिर्फ इसलिए कि वो आपकी मर्दानगी का विरोध नहीं कर सकती, लेकिन क्या मार पाओगे तुम, एक मां की ममता को सुखा पाओगे क्या उसके आंचल का दूध कल वही  भय तुम्हे घेरेगा जब तुम्हारा पुरुषवादी व्यक्तित्व तुम्हारा बेटा ढूंढने निकलेगा एक अदद लड़की। (2) ना करती प्रतिरोध तो क्या करती? सहती ...??? और रहती उन भेडिय़ों के साथ. आप की सभ्य दुनिया, जो नंगेपन की आदी है क्या देखती है नंगई सिर्फ मेरी दुनिया को क्यों नहीं दिखायी देता इन मर्द रूपी नामर्दों का नंगा नाच.  (3) हा हा हा ... अब मेरे प्रतिरोध को हवा देने तुम भी आ गये कहां थे तुम ?? जब जल रहीं थी बहू बेटिंयां दहेज के नाम पर, सताया जा र

पुराने शब्दों की तलाश में...वाया अजदक

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[ये पोस्ट अजदक की पोस्ट से प्रेरित है..] पुराने टॉर्च पर नये सैल लगा के टटोलता टटोलता आगे बढ़ने की कोशिश करता रहा.जंगल तो नहीं था पर माहौल जंगल जैसा ही था... घुप्प अन्धेरा ... सांय सांय बोलता सन्नाटा. दिन में हुई बारिस से जमीन भी गीली थी.पेड़ो से बीच बीच में गिरती बूंदें ..टप टप टप ... अपने को फिसलने से बचाने के लिये संभल संभल कर चल रहा था. पुराने शब्द ...आहा क्या पुराने शब्द ..अब जब पुरनिया हो ही गये तो डर काहे का..उसी आह्लाद में बोझिल उनींदी आंखें...फिरे कोई प्रयास उन भूले पुराने शब्दों को खोज के लाने का.. पुराने शब्द ? कौन से पुराने शब्द...अन्दर से आवाज आई.. शब्द कभी बूढ़े नहीं होते .. उनके चेहरे पर कभी झुर्रियां नहीं पड़ती...भुला दिये जायें ये और बात है.. पर तलाश कभी खतम नहीं होती ..कोई शब्द तलाशता है तो कोई अर्थ.. चर चरा रहे थे अधखुले किवाड़ भी ..सांय सांय में चर्र चर्र की बेहतरीन जुगलबंदी..भय कम होने की बजाय और बढ़ गया.. अधखुले किवाड़ ही तो है जो अभी अन्दर आने का रास्ता खुला रखे हैं.. गुमनाम बनके भी गुजर जायें तो भी पहचान लें शायद..लेकिन मेरी तलाश तो पहाड़ की थी उसी नीले पहाड़ की जो

समूहबद्धता और जातिवाद...

पिछ्ले लेख पर ज्यादा प्रतिक्रियाऎं तो नहीं आयी लेकिन जो  भी आयीं उन्होने कुछ नये प्रश्न खड़े कर दिये.प्रमोद जी बोले यह दिल्‍ली ही नहीं, मुंबई- कमोबेश किसी भी बड़े भारतीय शहर की अंदरूनी डायरी है. इस अनुभव से नतीजा क्‍या निकलता है? एक तो वह जिसे आप समूहबद्धता की सहूलियत का सीधा, आसान-सा नाम देकर छुट्टी पा सकते हैं. और देखना चाहें तो (मुझे हर जगह वही प्रभावी दीखता है)- कि ऊपरी तौर पर आधुनिकता के दिखावटी हो-हल्‍ले के बावजूद किस तरह यह हमारी एंटी-शहरी, घेटोआइज़्ड और अपनी पहचानी सामूहिकता से बाहर किसी भी अजनबीयत से भारी भय की मानसिकता है! आपको-हमको उतना न दिखे, मगर किसी भी अनजानी व नयी जगह में अल्‍पसंख्‍यक जिसकी सबसे ज्‍यादा तक़लीफ़ें व अलगावपन झेलते व जीते हैं.   यानि वो मानते है कि मेरे अनुभव मात्र मेरे अनुभव ही नहीं हैं उनका एक सार्वजनिक सरोकार है.लेकिन वो उन अनुभवों के नतीजे से खुश नहीं उनका कहना है ये नतीजा उतना सहज नहीं जितना मानने की भूल मैं कर रहा हूँ. वरन ये काफी ज़टिल है और इसके मूल में कहीं ना कहीं हमारे अल्पसंख्यक होने पर भय की मानसिकता भी है....मैं उनसे पूरी तरह से सहमत हूँ

अहमदाबाद और दिल्ली का जातिवाद ? ..

पहले रवीश जी की पोस्ट आयी अहमदाबाद के जातिवाद के बारे में.पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ. अब रवीश जी जैसा सम्मानित पत्रकार जब स्पेशल रिपोर्ट कर रहा है तो फिर शक की गुंजाइस तो थी नहीं फिर भी मन नहीं माना.अपने एक मित्र से संपर्क किया जो अहमदाबाद में रहे हैं तो उन्होने  भी इस तरह की किसी जातिवाद की समस्या से इनकार किया.लेकिन वो मित्र तीन वर्ष पहले ही अहमदाबाद छोड़ चुके थे इसलिये उनकी बात पर पूरी तरह से यकीन ना किया गया.एक तरफ रवीश जी थे..एन डी टी वी था दूसरे ओर हमारे नॉन गुजराती मित्र ..अंतत: एडवांटेज रवीश जी को ही दिया गया और हम बेसब्री से उस स्पेशल रिपोर्ट की प्रतीक्षा करने लगे.पता चला कि अभी फिलहाल वह रपट स्थगित कर दी गयी है. फिर योगेश शर्मा जी का लेख आया उससे स्थिति थोड़ी साफ सी हुई.उस लेख को पढ़कर मेरी भी हिम्मत हुई कि मैं भी अपने इसी तरह के अनुभव आप सब के सामने रखूँ. क्योकि जो बात योगेश जी के हिसाब से अहमदाबाद में सच है वही बात कमोबेश दिल्ली के लिये भी सच है कम से कम मेरे अनुभव तो यही कहते है. तकरीबन ड़ेढ़ बरस दिल्ली आया तो मकान की समस्या से दो चार होना पड़ा. लोगों ने सुझाया की सस्ता मकान किराय

क्रांतिकारी की कथा : हरिशंकर परसाई

आजकल हिन्दी ब्लॉगजगत में क्रांति का माहोल है,हाँलाकि कुछ लोगों का मानना है कि चिट्ठे क्रांति नहीं ला सकते...पर फिर भी कोशिश जारी है. कुछ लोग जन्मजात क्रांतिकारी होते है और कुछ लोग किताबें पढ़कर क्रांतिकारी हो जाते हैं. आज आपके सामने हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य प्रस्तुत है.जो एक "क्रांतिकारी की कथा" है. इसमें "चे-ग्वेवारा" का नाम भी आया है तो इन महानुभाव के बारे में थोड़ा बता दूं. अर्जेंटीना में जंन्मे "चे-ग्वेवारा" मार्क्सवादी क्रातिकारी थे.पेशे और पढ़ाई से वो डॉक्टर थे लेकिन उन पर मार्क्स साहित्य का गहरा प्रभाव पढ़ा और वे फीदेल कास्त्रो की क्रातिकारी सेना में सम्मिलित हुए.उन्होने कई पुस्तकें भी लिखी जो मूलत: स्पैनिश में थी पर उनके अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में भी खासे अनुवाद हुए.तो ये तो था चे-ग्वेवारा का परिचय.अब आप व्यंग्य का आनन्द लें. क्रांतिकारी की कथा : हरिशंकर परसाई ‘क्रांतिकारी’ उसने उपनाम रखा था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ,सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही। मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे-ग्वेवारा का खास भक्त। कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बाते

नारद जी : हम भी थे लाईन में...!!

बहुत हो गया.अब लगता है ज्यादा चुप नहीं बैठा जायेगा.साथी लोग उकसा रहे हैं... भय्या काहे चुप बैठे हो कुछ तो बोले ...कोई तो पक्ष लो...कह रहे हैं... चारों ओर हल्ला गुल्ला है और तुम चुपचाप बैठे हो.यह सब सुन कर बचपन की एक घटना याद आ गयी.एक बार बंदरों का झुंड हमारे मोहल्ले में आया.जाड़ों के दिन थे.हमारे जैसा एक मोटा बंदर धूप में आराम से लेटा धूप सेक रहा था.सारे बंदर कभी इस डाल तो कभी उस डाल मस्ती कर रहे थे.तभी उन में आपस में ना मालूम किस बात पर झगड़ा हुआ. सारे बंदर एक दूसरे पर खों खों करके टूट पड़े..लगता था सब एक दूसरे को गाली दे रहे हों...मोटे बंदर को कोई फरक नहीं पड़ा वो अभी भी धूप सेकने में मस्त था.सारे बंदर उसे बीच बीच में छेड़ के चले जाते.शायद उसे अपने गुट में शामिल करने की कोशिश कर रहे थे.पर उसे कोई फरक नहीं पड़ा वो वैसे ही सोया रहा... थकहार के सारे बंदर इधर उधर हो गये...वो तो बंदर थे उन्होने उस मोटे बंदर को बख्स दिया ... यदि वो इंसान होते तो !!... शायद पूरी कोशिश करते की वो उनके गुट में शामिल हो जाये.ना शामिल होने पर गाली भी देते ...उसे हिन्दू विरोधी या हिन्दू हितैषी की संज्ञा भी दे डालते पर

प्यार हो तो ऎसा !!!

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ये पोस्ट मैने अपने दूसरे चिट्ठे पर लिखी थी...पर ना जाने क्यों नारद पर नहीं आयी ..इसलिये यहाँ पर पोस्ट कर रहा हूँ...शायद अब नारद पर आ जाये.... आपने जिम और डेला की कहानी तो पढ़ी ही होगी...यदि नहीं पढ़ी तो थोड़ा इसके बारे में भी बता दूं..ये कहानी ओ हैनरी ने लिखी थी. ..कहानी का नाम था "The Gift of the Magi" जिम और डेला नाम के दो दम्पति अमरीका के न्यूयार्क शहर में रहते थे. दोनों बहुत गरीब थे लेकिन एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. जिम के पास एक घड़ी है लेकिन उसकी चेन उसके पास नहीं है .जिम के पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वो नयी चेन खरीद सके.डेला के बाल बहुत ही घने ,लंबे और सुन्दर हैं.जिम को भी डेला के बाल बहुत अच्छे लगते हैं. जिम को अपनी घड़ी और डेला को अपने बालों से बहुत प्यार है. क्रिसमस बस अब एक ही दिन दूर था. डेला के पास सिर्फ कुछ ही पैसे थे ...लगभग 1 रुपये 87 पैसे ... पर वह जिम को एक अच्छा सा क्रिसमस का उपहार,उसकी घड़ी के लिये एक चेन, देना चाहती थी.डेला जब चेन खरीदने गयी तो उसे पता चला कि चेन का दाम 21 रुपये था. डेला सोच में पड़ गयी और उसने एक बिग बनाने वाली को अपने बालों को बेचने का न

कृपया गँदा मत कीजिये-पॉडकास्ट

आजकल फिर पॉडकास्टिंग का बोल बाला है . तरकश की अच्छी अच्छी पॉडकास्ट तो सुनते ही थे पॉडभारती भी आ गया/गयी. इस सब को देख हमको यदि हमें भी जोश उमड़ गया ...इस बुढ़ापे में ...तो क्या गलत है . तो लीजिये पेश है पॉडकास्टिंग के लिये नया चिट्ठा और नयी पॉड्कास्ट. कई बार हम कुछ पढ़ते हैं तो हमारी इच्छा होती है कि हम उसे अपने मित्रों के संग बाटें . अब इतने बड़े बड़े लेख टाइप तो नहीं किये जा सकते हैं (अभय जी , अफलातून जी और कुछ लोग अपवाद हैं ) पर पॉडकास्ट किये जा सकते हैं. तो इसी श्रेणी में प्रस्तुत है आज 'देवेन्द्र नाथ शर्मा' के एक ललित निबंध “क़ृपया गंदा मत कीजिये” के प्रमुख अंश. देवेन्द्र नाथ जी एक दिन सार्वजनिक स्थान पर एक बोर्ड देखते हैं “क़ृपया गंदा मत कीजिये” तो वो चक्कर में पड़ जाते है कि “गंदा” का क्या अर्थ है ..और तब उत्पन्न होता है ये निबन्ध. "उनके थूक में रंगीनी नहीं थी. यानि वो ताम्बूल सेवी नहीं तम्बाकू सेवी थे. ताम्बूल सेवियों की छाप तो और भी गहरी होती है." "व्यसनों में भी वर्ग भावना है. बीड़ी पीने की अपेक्षा सिगरेट पीना अधिक आभिजात्य का सूचक है. " "पाश्चात्य

जूता पुराण पॉडकास्ट - 2

इस पॉड्कास्ट में मैने थोड़ा सा नया प्रयोग करने का प्रयास किया है. पॉड्कास्ट यहां पढ़ें . joota_puran1_5.mp3 इस पॉड्कास्ट में मेरी आवाज के अतिरिक्त मेरी पत्नी और पुत्र की आवाज के साथ एक स्पेशल आवाज भी है . अपनी टिप्पणीयों से उत्साह वर्धन करें.

जूता पुराण पॉडकास्ट - 1

जब मैने पॉडकास्टिंग शुरु की थी तो उस समय आर.सी.मिश्रा जी ने सुझाया था कि पॉडकास्ट को ब्लौग में ही लगा दें . इसीलिये इस नये ब्लौग में वही करने का प्रयास है. पहली पॉड्कास्ट पेश है..... इसे यदि पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ें . joota_puran1.mp3 आगे से नियमित पॉडकास्ट करने का विचार है. सुनते रहें .