पुराणिक मास्साब की डायरी का एक पन्ना.
(ये रचना, व्यंग्य की तोप,हमारे सह ब्लॉगर श्री आलोक पुराणिक जी पर नहीं है.) एक मास्साब थे,काफी सेंसिबल टाइप थे.सारे मास्साब सैसिबल हों ये जरूरी नहीं पर वो थे.लेकिन वो थे थोड़ा पुराने जमाने के मास्साब ...यानि पुराणिक टाइप ...अभी भी बच्चों को पढ़ाकर उन्हे आदमी बनाने की पुरानी सोच रखते थे.दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच रही है बच्चे अपने मास्साब को इंसान बनाने की सोच रहे हैं और ये बेचारे..खैर ... ऎसा नहीं था कि इस बात को समझते नहीं थे कि दुनिया बदल रही है इसीलिये दुखी भी थे लेकिन अपना दुख वो कभी भी जाहिर नहीं करते थे दुनिया के सामने उनके बत्तीसी लगातार चमकती रहती थी.हाल ही उनकी एक पुरानी डायरी मेरे हाथ लग गयी.उसी के कुछ अंश पेश कर रहा हूँ.हिन्दी के मास्साब हैं इसलिये शब्द कहीं कहीं अंग्रेजीनुमा हो गये हैं. आज सुबह उठा तो सुबह अभी भी सोयी ही पड़ी थी.देर रात तक पार्टी किये लोग अभी किसी स्वप्न नगरी की अट्ठालिकाओं में विचरण कर रहे थे.काम करने वाली बाइयों ने अपने घर के काम निपटाने चालू कर दिये ताकि उनके मालिकान उठें तो वो उनके काम निपटा सकें.अलसायी गायें अपने दूहे जाने के लिये तैयार हो रही थी.कुछ कु